जनजातीय कला" उन शब्दों में से एक है जो कला सिद्धांतकारों को आहत करता रहा है। लोगों के अनुसार जनजातीय कला का मोल कला प्रेमियों के लिए हमेशा से निरर्थक रहा है ।
फिर भी किसी अन्य शब्द ने हमारे मौलिक चेतना को इतनी अच्छी तरह से प्रभावित नहीं किया और साथ ही दुनिया भर के स्वदेशी लोगों की विशिष्ट कलात्मक परंपराओं का वर्णन करने के लिए पूर्ण रूप से सक्षम है।
भारतीय जनजातीय कला, जो कि आज भी कई लोगों से अज्ञात बना हुआ है , अनुठी कलाकृति और मौलिक विचारों का संगम है।
कई निवासी जनजातियों में से जिनकी कला को इस लोकप्रिय रूप में अपनाया गया है: उरांव, प्रजापति, तेली, गंजू, कुर्मी।
बाद वाली जनजाति कला का एक एेसे रूप विकसित करने के लिए प्रचलित है जो प्रागैतिहासिक प्रतिमा और शैली से निकटता से संबंधित है।
कुर्मी एक अर्ध हिंदूकृत आदिवासी जनजाति है जो गृहस्थ पूजा का अभ्यास करती है और घने जंगलों वाले क्षेत्रों में बसी है। उ
नकी कला में दो प्रमुख और समान रूप से विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं, और उन दोनों रुपों का स्रोत क्षेत्र की रॉक कला से है।
एक रूप काले और सफेद रंग में एक कंघी-कट वाली स्ग्रैफिटो शैली है, जो मुख्य रूप से दक्षिण हजारीबाग के गांवों के जोराकथ परिसर में पाया जाता है, और दूसरा एक चित्रित रूप है जो गांवों के भेलवाड़ा परिसर , जो कि पूर्वी हजारीबाग का भाग है, में पाया जाता है।
हजारीबाग ने खुद को एक बहुत समृद्ध पुरातात्विक क्षेत्र के रूप में स्थापित किया है, और यहाँ मानव निवास के साक्ष्य को निचले पुरापाषाण काल में खोजा जा सकता है, जिसमें मध्य और ऊपरी पुरापाषाणकालीन पत्थर के औजारों के कई उदाहरण हैं, और एक जीवंत मेसोलिथिक चरण भी मौजूद है जिसमें बारीक औजार वाले विंध्य माइक्रोलिथ की झलक दिखाई पङती हैं।
चित्रित आश्रयों, नवपाषाण कुल्हाड़ी और सजाए गए मिट्टी के बर्तनों को भी यहाँ पर पाया जा सकता है।
जिला मुख्यालय, शहर 'हजारीबाग' से 45 किमी पूर्व में भेलवाड़ा प्रांत की कुर्मी महिलाएं, और इस्को में निकटतम रॉक आर्ट साइट के 80 किमी उत्तर पूर्व, सोहराई उत्सव से संबंधित सबसे विपुल और शैलीगत रूप से विशिष्ट कला का स्थल है।
धारीदार और चित्तीदार मवेशी तथा हाथी जैसे अन्य जानवरों और सींगधारी देवता का बैल के पीठ पर खड़े कर के चित्रण है जिसे जीवन रुपी पेङ भी कहा जाता है।
जीवन रुपी पेङ या जीवन का पेङ कृषि और प्रकृति के प्रतीक है। हजारीबाग के इस क्षेत्र में 'जीवन का पेङ' और साथ ही पहिएदार पशुओं का अनोखा चित्रण इस्को में भी सम्मिलित किया गया है।
सन् 1994 से, इन्टाक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) भेलवाड़ा के कुर्मी तथा सोहराई कला को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है, जो शायद भारत में सबसे पुरानतन कलाओं में से एक है।
जून से सितंबर तक भयंकर बारिश से गाँव बह जाते हैं, और सभी चित्रित चित्र धुल जाते हैं क्योंकि वे केवल प्राकृतिक पीले और लाल मिट्टी के गेरू, काओलिन से सफेद और मैंगनीज के काले रंग से रंगे होते हैं।
खेतों में लाल और पीले गेरू खोदे जाते हैं, और गांव के पीछे पर्वतमाला के पास से काली और सफेद मिट्टी मिलती है।
जैसे-जैसे अक्टूबर-नवंबर के दौरान फसल की कटाई होती है, मानसून समाप्त होने के बाद डिजाइनों को चित्रित किया जाता है। यह गांवों में एक अद्भुत मौसम है, और एक शांत शांति बनी रहती है।
कुरमी और बाकी सभी अज्ञात तथा भुला दी जाने वाली जनजातीय कला को भुलाना हमारे संस्कृति के लिए अघात होगा और हमें अपनी नई पीढ़ी को इन अद्भुत कलाओं से अवगत कराना होगा।
Author: Tanya Saraswati Editor: Rachita Biswas
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