परिचय
पट्टचित्र शब्द "पत्ता" और "चित्र" की संधि से बना है। चटकीले रंगों का प्रयोग कर, हिन्दू देवी- देवताओं का चित्रण करने वाली यह चित्रकला, ओड़िशा की पारम्परिक चित्रकला है। सिर्फ ओड़िशा ही नही, यह चित्रकला प्राचीन बंगाली कथा कला का भी एक अंग है, जो गीत के दौरान- चलचित्र और दुर्गा सारा- दृश्य दृष्टिकरण के रूप में काम करता है।
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पृष्टभूमि
प्राचीन पट्टचित्र ओड़िशा के पुराने भित्ति चित्रों, खासकर कि पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर के धार्मिक केंद्रों से मेल खाती है जो पाँचवी शताब्दी ईसापूर्व की है। पुरी के देवताओं की रंग योजनाएं पट्टा शैली के समान हैं। पट्टचित्रों का सबसे पुराना अभिलेख संभवतः पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के आस- पास है।
ओड़िशा के क्षेत्रों के अलावा यह रभूम , पश्चिम मिदनापुर , झारग्राम, बर्धमान , मुर्शिदाबाद जिले और कालीघाट क्षेत्र में प्रचलित है।
बंगाल के लोक कला लेखक, अजीतकोमर मुकर्जी के अनुसार बांकुरा जिले के मंदिरों में भित्ति शैली के जट्टू-पट्ट चित्र मौजूद हैं। इसके अलावा बौद्ध साहित्य, हरिबंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम, मालविकाग्निमित्र ,हर्षचरित और उत्तररामचरित में भी बंगाल पट्टचित्र का उल्लेख है।
धैर्य और अनुशासन इस कला के मूल और बहुत महत्वपूर्ण पहलू हैं। नमूनों के इस्तेमाल की शैली का पालन पूरी सख्ती से होता है, और हमेशा एक ही संगत वाले रंगों का प्रयोग किया जाता है।
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विधी
ओड़िशा में परम्परागत रूप से परिवार के सभी सदस्यों के कार्य निर्धारित होते हैं और वह सब इस कला प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं। चित्रकार इतने कुशल होते हैं कि बिना कोयले से प्रारूप बनाए, वे सीधे रंगों का ही इस्तेमाल करते हैं। अंत में चित्र बन जाने पर गर्मी के संपर्क के लिए चित्र को एक चिमनी के ऊपर रख दिया जाता है।
प्राकृतिक रंगों का उपयोग बंगाल पट्टचित्रों की विशेषता है। चित्रण में नीले, पीले , हरे , लाल , भूरे , काले और सफेद रंग का उपयोग किया जाता है। पीले रंग के लिए पौड़ी, नीले रंग के लिए इंडिगो की खेती, काले के लिए भूषाकली और लाल रंग के लिए मिन्द सिन्दूर का उपयोग होता है।
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सारवस्तु
पट्टचित्र संस्कृति के आरंभ के पश्चात भगवान जगन्नाथ इस कला की प्रेरणा के प्रमुख स्त्रोत रहे हैं। मुख्य रूप से भगवान जगन्नाथ और राधा - कृष्ण , श्री जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा , मंदिर की गतिविधियाँ, विष्णु के दस अवतारों का चित्रण होता है। यह शैली शास्त्रीय और लोक तत्वों का मेल है।
पटुआ संगीत बंगाल में गायन बर्तनों को कहा जाता है। धार्मिक, धर्मनिष्पेक्ष, आदि जैसे कई बर्तन होते हैं, जिनका उद्देश्य होता है- संदेश देना। पौराणिक कथाएँ, महाकाव्य, देवी- देवताओं की कथाओं के अलावा महत्वपूर्ण घटनाओं, समाचारों और सामाजिक मुद्दों का भी चित्रण होता है, जिसमे हर परिचित्र से संबंधित गीत होती है।
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विगम
हर कला शैली की तरह इस कला में भी समय के साथ कई नवीनतम बदलाव आए हैं। खंडू और राधा चित्रकार, और उनके बच्चे बापी, समीर, प्रबीर, लालटू, तगर, मामोनी और लैला चित्रकार का नाम प्रमुख चित्रकारों के रूप में जाना जाता है।
आज, ताड़पत्रों के अलावा यह चित्रकला दीवारों पर लटकी, और शो-केस पर शो-पीस के रूप में सजी मिलती है। दृढ़ कलाकारों की मेहनत का नतीजा है कि यह परम्परा, और इस परम्परा का मूल भाव आज तक बरकरार रहा है।
Author: Pratichi Rai Editor: Rachita Biswas
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