प्रेम और समृद्धि का प्रतीक कोहबर बिहार और झारखंड की प्रसिद्ध लोककला है। मैथिली संस्कृति की देन कोहबर चित्रकला खासतौर पर विवाह के समय वर और वधू दोनों पक्षों के घर के किसी पूर्वी दिवार में की जाती है। विवाह के पूरे कार्यक्रम में शामिल एक रीत कोहबर पूजन का भी होता है जिसमें कोहबर चित्रों को पुजा जाता है और इस दौरान मुलतः कोहबर गीत भी गाया जाता है।
विवाह के बाद जब नई वधू का आगमन अपने ससुराल में होता है तो उसके रहने की व्यवस्था कोहबर चित्र से अलंकृत कमरे में की जाती है ताकि नवदंपत्ति के ऊपर ईश्वर का आशीष बना रहे और साथ ही वधू अपने नई जिम्मेदारी का पालन अच्छे से कर सके।
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कोहबर अपने आप में ही मौलिक और सहज भाषा है । कोहबर चित्र बनाने की विधि में केवल प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता है । सफेद रंग के लिए दुधी मिट्टी का प्रयोग एंव काला रंग भेलवा पेङ के बीज तथा अन्य रंग पेङ के छाले और फूलों से तैयार किया जाता है ।
कोहबर चित्र बनाने के समय उंगलियाँ, कंघी और दातुन का उपयोग ब्रश की तरह किया जाता है। कोहबर चित्र में कमल के फूल, मतस्य, सर्प और पक्षियों का प्रतीकात्मक चित्रण के साथ ही शिव और पार्वती का भी अद्भुत चित्रण किया जाता है।
हिंदू वेद और पुराणों में शिव और पार्वती के भव्य विवाह का उल्लेख भी है । इसलिए आज भी सफल वैवाहिक जीवन के लिए इन्हें पुजा जाता है।
कोहबर के दुसरे प्रसिद्ध चित्रों में 'पुराइन' का चित्रण किया जाता है। पुराइन कमल के फूलों का चक्र और बांस के पेड़ का सम्मिलित रुप है जिसमें कमल चक्र स्त्रीलिंग और बांस पुल्लिंग को दर्शाता है।
चित्र में सुर्य और चंद्र भगवान जोड़े को शुभकामना देते हैं और जलीय जीव सुख और संपत्ति में वृद्धि के द्योतक है। कुछ चित्रों में दुर्गा मां का चित्र केंद्र में देखा गया है।
कोहबर चित्र में मतस्य उर्वरता, कच्छप प्रेम और सर्प दिव्यता के प्रतिनिधिक है ।
कोहबर हमारी विराट परंपरा की वह धरोहर है जिसे हमे हमेशा अपने मन के रंगीन दिवार में सहेजना होगा जिसका परिणाम निश्चित ही प्रतिफल प्रेम और समृद्धि युक्त जीवन होगा।
Author: Tanya Saraswati Editor: Rachita Biswas
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