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Writer's pictureRachita Biswas

प्रकृति और मधुबनी

Updated: Jul 15, 2022


प्रकृति और मधुबनी

भूमिका

मधुबनी चित्रकारी एक ऐसी कला है जो युगों-युगों से मानव जाति और जैव विविधता के बीच के रिश्ते का प्रतिबिंब रही है। सबसे खास बात तो यह है कि इस मधुबनी कला के लिए जितने भी संसाधनों की ज़रूरत होती है, वो सभी पर्यावरण के अनुकूल और प्राकृतिक होते हैं। चूंकि यह कला महिलाओं के लिए एक घरेलू शौक के रूप में जन्मी थी, इसलिए इसकी आवश्यक सामग्रियाँ आसानी से उपलब्ध होती हैं।


महिलाएं अपने आस-पास मौजूद छाल, पत्तियां, फूल, बीज, मसाले, आदि का इस्तेमाल कर रंग तैयार करती थीं। कहा जाता है कि मधुबनी कलाकार कभी फूल नही तोड़ते, सिर्फ गिरे हुए फुलो को ही चुनते हैं। कितनी खूबसूरत प्रथा है, ना?


तो आइए, मधुबनी कलाकारों द्वारा उपयोग किये जाने वाले कच्चे सामग्रियों के बारे में विस्तृत रूप से जानते हैं!


सामग्री

कैनवास को एक विशेष परत से लीपा जाता है जिसमें गोबर मुख्य घटक होता है। परम्परागत रूप से गाय के गोबर को बबूल के गोंद और चिकनी मिट्टी के साथ मिला कर दीवारों पर लगाया जाता है। इससे दीवारों पर विशेष चमक आ जाती है। गोबर कीट विकर्षक का भी काम करता है।


नींबू के रस की कुछ बूंदों के साथ ओढ़हल के फूलों को उबालने से हल्का काला रंग बनता है। काले रंग के लिए तिल और बाजरे को एक साथ कुचल के मिश्रित किया जाता है, और गहरे काले रंग के लिए, जौ के बीज को गोबर के साथ मिलाया जाता है।


जौ के बीज

पोलो बेरीज, सूखे पलाश के फूल, चुकंदर, मेहंदी के पत्ते, सरसों और सिंदूर के बीज लाल रंग बनाने में उपयोग किए जाते हैं।

पोलो बेरीज, सूखे पलाश के फूल

भूरे रंग के लिए, कचनार और कटहल के पेड़ों की छाल का उपयोग किया जाता है। लीची के पत्तों से ब्राउन-पिंक निकाला जाता है।

कचनार और कटहल के पेड़ों की छाल

एक दिलचस्प बात यह है कि जानवर भी रंग निष्कर्षण के एक माध्यम के रूप में काम करते हैं। गायों को दो से तीन दिनों तक केवल आम के पत्तों को खिलाया जाता है जिसके परिणामस्वरूप गहरे पीले रंग के मूत्र का उत्पादन होता है जो एक विशेष पीले रंग का उत्पादन करता है। इस विधि को 'गूगली' कहा जाता है। इसके अलावा, पीले रंग को प्राप्त करने के लिए कटैया के फूल और सूरजमुखी का भी उपयोग किया जाता है।

कटैया के फूल और सूरजमुखी

गहरे गुलाबी रंग के लिए कुसुम के फूल को पुरो बीज के साथ गोंद में उबाला जाता है।

कुसुम के फूल

मैरून रंग के लिए, बाबुल और लाटूम की छाल को एक साथ उबाला जाता है।

बाबुल और लाटूम की छाल

पिसे हुए चावल का गीला पेस्ट बना कर उसे सफेद रंग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे 'पिथर' कहते हैं।

'पिथर'

डारिन पेड़ के छाल और फल के आंतरिक खोल से सुनहरे रंग को निकाला जाता है।

डारिन पेड़ के छाल और फल

अपराजिता फूल नीले रंग के स्रोत के रूप में काम करता है और हरे रंग को भांग और सेम के पत्तों से निकाला जाता है।

अपराजिता फूल

इसके अलावा, रंगों को बबूल के गोंद के साथ मिलाया जाता है ताकि रंग बहे ना। ब्रश के लिए, सूती कपड़े को माचिस और बांस की कलम के ऊपर लपेटा जाता है।

बबूल के गोंद

सार

यह सभी पेड़-पौधे बिना किसी बाहरी प्रयास के बिना, प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। इन पौधों की अतिरिक्त खेती में वैकल्पिक खेती का हिस्सा बनने की क्षमता है, जो प्राकृतिक रंगों के उपयोग को भी लोकप्रिय बनाएगी।


कच्चे सामग्रियों को हाथों से चुन के रंग बनाना इस कला के पार्थिव खूबसूरती में चार चाँद लगा देता है। ऐसे युग में जहाँ सत्ता में बैठे अज्ञानी जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों से मुँह फेरे हुए हैं, मधुबनी जैसी विनीत कला अनादिकाल से पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक रही है और प्रकृति के सानिध्य में फूलती-फलती आई है।


प्रकृति और मधुबनी

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